मैंने कहा था
(काव्य संग्रह)
लेखक
महेश रौतेला
वर्जिन साहित्यपीठ
प्रकाशक
वर्जिन साहित्यपीठ
78ए, अजय पार्क, गली नंबर 7, नया बाजार,
नजफगढ़, नयी दिल्ली 110043
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रथम संस्करण फरवरी 2018
ISBN
कॉपीराइट © 2018
वर्जिन साहित्यपीठ
कॉपीराइट
इस प्रकाशन में दी गई सामग्री कॉपीराइट के अधीन है। इस प्रकाशन के किसी भी भाग का, किसी भी रूप में, किसी भी माध्यम से - कागज या इलेक्ट्रॉनिक - पुनरुत्पादन, संग्रहण या वितरण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक वर्जिन साहित्यपीठ द्वारा अधिकृत नहीं किया जाता।
महेश रौतेला
फोन: 9426614203
जन्म-स्थान: खजुरानी (अल्मोड़ा)
जन्म-तिथि: 25 जुलाई, 1955
शिक्षा: एमएससी (रसायन विज्ञान), कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल
सम्प्रति: लेखन कार्य
प्रकाशन: क्षणभर, वर्षों बाद, हे कृष्ण, कभी सोचा न था, ओ वसंत, हमीं यात्रा हैं, नानी तुमने कभी किसी से प्यार किया था। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
सम्पर्क: 19, मारूतिनन्दन चाँदखेड़ा, अहमदाबाद - 382424
मैंने
सबसे पहले
तुममें
खोजा था प्यार,
तुम्हें
पता था या नहीं,
पता
नहीं।
मैंने
सबसे पहले
तुमसे
ही कहा था,
अपना
पवित्र सत्य
तुम्हें
पता था या नही,
पता
नहीं।
मैंने
सबसे पहले
तुमसे
ही कहा था,
"मैं
तुमसे प्यार करता हूँ"
तुम्हें
पता था या नही,
पता
नहीं।
तुम्हारी बात का
कोई किनारा दबा हुआ है,
तुम्हारे पैर का
कोई कदम रूका हुआ है,
तुम्हारे हाथ का
कोई स्पर्श सहमा हुआ है,
तुम्हारी मुस्कान का
कोई किनारा छूटा हुआ है,
तुम्हारे नाम के
अक्षर-अक्षर उखड़े हुये हैं,
तुम्हारी घर का
कोई कोना टूटा हुआ है,
तुम्हारी आशा का
कोई किनारा दबा हुआ है।
मेरे देश की लिखावट
परायी है
जनता के लिये नहीं
अपने लिये है
हम नालन्दा और तक्षशिला
नहीं पा रहे हैं
क्योंकि देश की लिखावट
बाहरी है,
हम दोस्ती चाहते हैं
स्वयं की लिखावट वाले
चीन,जापान,रूस आदि आदि से
हमारी सभ्यता में बड़ा छेद हो गया है
देश के लिये हमारी नीयत में
डगमगाता खोट है ,
हम नालन्दा और तक्षशिला
नहीं पा रहे हैं
तेरी ही बातों को
मैं सगुन बना लूँगा,
विदा होने की घड़ी को
याद बना दूँगा,
तेरी बिछी आँखों को
मन से पिरो लूँगा,
उदास चेहरे में
खुशी मिला लूँगा ,
मैं इस घड़ी को
नया नाम दे दूँगा,
अटके सब भावों को
शब्दों में बाधूँगा ।
तेरी ही बातों को
मैं सगुन बना लूँगा,
आने वाली हर सुबह में
तुझे मुझे जपना है,
कनखनियों से आती यादों का
एक पहाड़ बनना है,
पैर तले लगी माटी से
पगडण्डी लम्बी करनी है,
अनकहे प्यार को सुनकर
अपनी जिजीविषा सुलझानी है,
दुख की सोच जो बनी यहाँ
उसे सुख तक लाना है,
गत मिले हाव-भावों को
कान पकड़कर बैठाना है ,
लोगों की आती भीड़ से
कदम अलग करके जाना है।
इस विदाई में कुछ फूल लेने हैं
फूलों की तरह खिल
इक सुवास तुम तक पहुँचानी है,
मैं कौन हूँ ?
खोजा नहीं गया हूँ,
मेरी टूट -फूट में
मेरी उम्र दिखती है ,
पर मेरी आत्मा में अभी
फूल खिला करते हैं,
सपने जब भी आयेंगे छनकर
देश बनकर खिलखिलाना तुम
अभेद्य सीमा के लेख बन
कहीं उतर जाना मूक,
या कोई रूप धर
मेरी हँसी में मिल जाना।
यह समय मुझसे छूटता है
वह समय मुझे पकड़ता है
यदि गीत बना तो गुनगुनया करो
यदि याद बना तो दोहराया करो
यदि राह हुआ तो चला करो
यदि उत्कर्ष लिया तो उड़ा करो।
मैं विदा हुआ, पर एक कदम आगे चला हूँ,
स्वर की तरह, स्वर में आ गया हूँ
पतझड़ भी मन में है, उत्सव भी घर में है ,
विदा होने के बाद, मैं तेरी यादों से घिरा हूँ,
विदा होने के बाद, मैं तेरी आँखों से बँधा हूँ।
इतने गहरे में थे तुम ईश्वर
कि घंटों देखा आँखों में उनके,
डूबा था फिर उठ न सका
फिर हाथ तुम्हारा थाम न सका ,
लौटा था मन जब बेमन होकर
अंधकार भी नहीं दिखा था ,
पुरवाइ जो चली वहाँ पर
उधेड़बुन में खड़ा हुआ था ,
तुम तक आने में मुझको
गहराई का भान नहीं था,
लड़खड़ाया चलने में जब
साथ तुम्हारा छूट गया,
इतने गहरे में थे तुम ईश्वर
कि मन की राहें भूल गया।
कुरकुरी हवा अब भी बहती है
धूप चमकीली अब भी दिखती है
आँसू से नम अब भी होते हैं
सूनी राहें अब भी मिलती हैं,
प्यार के क्षण अब भी आते हैं
दुख का चरित्र अब भी मुड़ता है
जीवन की कसम अब भी खाते हैं
मंदिर पर अब भी रूकते हैं,
चिड़िया दाने अब भी चुगती है
इन्द्रधनुष अब भी बनते हैं
सुख पर अब भी पट्टियां लगती हैं
कोरा कागज अब भी भर लेते हैं।
तुम्हारी बातें अब भी दिखती हैं
कटाक्षों में अब भी रस मिलता है
इंतजार अब भी असहज लगता है
ठंड में अब भी ठिठुरन होती है।
यात्रा का अन्त ऐसे होता है
पता नहीं था,
प्यार की शुरुआत ऐसे होती है
पता नहीं था,
गीत का लय कैसे बनता है
पता नहीं था,
नदी कैसे पवित्र होती है
पता नहीं था,
पहाड़ गगनचुम्बी लगते हैं
इसका आभास था,
लोग सुखद होते हैं
ऐसा लगा था,
मन में जगमगाहट ऐसे होती है
पता नहीं था,
शुभकामनाओं का समागम ऐसा रहता है
पता नहीं था,
तुम्हारी बातें सोचती हैं
पता नहीं था,
अपार स्नेह जगाता है
पता नहीं था,
यात्रा का अन्त ऐसे होता है
पता नहीं था।
बहुत सी खबरें लाया हूँ
अपनों के लिये
परायों के लिये,
जैसे बादल फटना
मकानों-दुकानों का बहना
सड़कों का चित्त होना
पगडण्डियों का दबना,
भ्रष्टाचार के बीच सदाचार की पंक्तियाँ,
अंधाधुंध दौड़ में प्यार का दबना,
धरती की हरियाली,
शब्दों की टकराहटें,
सीमा पर शहीदों की चितायें,
राजनीति का गिरना,
राजा का लुप्त रहना,
भाषाओं का भू-स्खलन,
हमारा लापता होना,
उदासी के बीच
नक्षत्रों सी टिमटिमाहट।
बहुत सी खबरें लाया हूँ
अपनों के लिये
परायों के लिये।
तेरी गली में आया
मिलने के लिये नहीं
बस, एक सुवास लेने के लिए।
कदमों पर विश्वास नहीं
पर चलता गया
तुमसे मिलने नहीं
प्यार की दूरी तय करने।
मन माना नहीं
तुम्हारे लिये नहीं
तुम्हारी रूह के लिये।
खींचता गया हर क्षण
शब्दों के जमाव पर नहीं
खालीपन के भराव पर।
मैंने पूछ लिया
पहाड़ की ऊँचाई
आसमान का रंग
समुद्र की कहानी
फूल की सुन्दरता
मौसम का नाम
इतिहास की घटना
वृक्ष की उम्र
नदी के लम्बाई
इस ओर आती हवा का मन
रिश्तों में तथागत
महाभारत का कारण
रामायण का मूल,
समझता रहा
पृष्ठों को उलटता गया
पर फिर जो मौन आया
उससे कह न पाया
अगली मुलाकात की बात,
समय के छूटे क्षण
कहते हैं
कुछ गुनगुना जाते हैं ,
प्यार का बिषय
जो टूटा है
उसी को उठाते- उठाते
निराकार हो चुका हूँ।
मेरे सपनों की ताजगी
तुम से है,
मेरे कदमों की आहट
तुम से है,
मेरे आँखों की रोशनी
तुम से है,
मेरे मन का सौन्दर्य
तुम से है,
मेरे हाथों की थपथपाहट
तुम से है,
मेरे मन में बैठी,वहीं से उठी
अद्भुत ताजगी
तुम से है।
सब कुछ सपने जैसा होगा
गंगा शुद्ध हो बहा करेगी,
हिमगिरी ऊँचा बड़ा करेगा
जंगल अपने हरे रहेंगे,
भारत अडिग उन्नत होगा
तीर्थ-तीर्थ पर संत चलेंगे,
महाकुंभ पर अमृत छलकेगा
फूल-फूल पर मधुप रहेंगे,
युग से युग तक मुस्कान बनेगी
यहाँ-वहाँ पर बड़बोले होंगे,
उड़ा मनुष्य फिर बैठेगा
देश की मिट्टी पर मिटेगा,
भागी-भागी सी दुनिया में
सब कुछ सपने जैसा होगा।
धो दूँ उस प्यार को
गंगा जल से,
हिमालय की ठंडी हवा में
उड़ा दूँ,
छाँव में बैठा दूँ युगों तक।
जम चुका जो मन में
उसे जमा रहने दूँ,
जो मिट्टी से लगा है
उसी से चिपका रहने दूँ,
जो पवित्र जगह पर है
उसे पूज्यनीय रहने दूँ,
जो सुगंध बन चुका है
उसे फैलने दूँ,
धो दूँ उस प्यार को
गंगा जल से।
हमने कुछ नारे लगाये
बदलाव के लिये
परिवर्तन के लिये
समग्रता के लिये
सम्पूर्णता के लिये।
अच्छाई के पीछे देर तक भागे,
बुराई के विरुद्ध अड़े रहे।
काँटे जो चुभे
छाले जो पड़े
उन्हें सह लिये।
कुछ नारे लगाये
रोटी-कपड़ा और मकान के लिये,
भाषा के विश्वास के लिये,
मँहगाई से विवश होकर
दिवारों पर लिखा
लुटेरों के विरुद्ध।
घोर अँधेरे से मिल,
हमने भी चाही एक उड़ान
सतयुग की ओर।
शुद्ध सुबह का झोंका बन
मेरे घर पर तुम आना,
वही धूप ,वही हवा ,वही मन ले
फिर बैठ जायेंगे गलबहियों में,
क्षणभर मुयाना कर,
मन को सुधार लेंगे।
देश के लिए कुछ सोचेंगे,कुछ करेंगे
हर नारे को फिर तोलेंगे,
हर कमी पर न्याय करेंगे,
हर अँधियारे से निकल आयेंगे,
हम देश की तुलना देशों से करेंगे,
हर धसी जमीन को पाट लेंगे,
हम काले कामों से नहीं
उचित नाम "भारत" से जाने जायेंगे।
तुम में क्या था जो मैंने चाहा,
क्षुब्ध प्यार भी वह नहीं था,
तृप्त ईश्वर भी वह नहीं था,
चाहा-अनचाहा तुम में था।
गरिमा जैसा कुछ अन्दर था,
छूटी जीजिविषा दिखती थी,
जो छुआ तुमने वह मैं था ,
जो छू न पाये वह अनन्त था।
जो जी लिये वहीं स्नेह था
जो जी न पाये वह सपना था,
कहाँ धरूँ अब मन की पीड़ा,
कहाँ राह की उत्सुकता देखूँ ?
तुम में क्या था जो मैंने चाहा,
तुम में क्या था जो मैंने पाया।
शायद, तुमसे अच्छे लोग मिले,
तुमसे अद्भुत विचार सुने,
तुमसे सुन्दर तन देखा,
पर तुम सा कोई शब्द नहीं था।
शायद, उनसे ऊँचे शिखर भी देखे,
उससे अधिक सौन्दर्य मिला,
तबसे अनोखे क्षण भी आये,
पर तुम सा कोई नाम नहीं था।
तुम से ज्यादा परिचित पाया,
दोस्त का सच्चा साथ भी देखा,
मन का चंचल आकर्षण देखा,
पर तुम सा कोई प्यार नहीं था।
पगडण्डी पर भीड़ भी देखी,
सड़कों पर शाम भी पायी,
मंदिर पर लोग भी देखे,
पर तुम सा सरस अंदाज नहीं था।
आदमी होने का अहसास
कुछ सत्य में था
कुछ संघर्ष में था,
कुछ आन्दोलनों के आस-पास
नयी क्रान्ति में था ।
आदमी होने का अहसास
उस प्यार में था
जो वर्षों पहले हुआ,
उस परिवर्तन में था
जो खिला-खिला रहता था।
आदमी होने का अहसास
बड़ा था , अद्भुत था,
नदी पार उतरने जैसा
पहाड़ पर चढ़ने जैसा
असमान में उड़नेजैसा
क्षितिज से मुड़ने जैसा
समुद्र की छलांग जैसा।
जब आदमी,
आदमी से बड़ा नहीं था,
आदमी होने का अहसास सुन्दर था।